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इन्द्रं॑ मि॒त्रं वरु॑णम॒ग्निमू॒तये॒ मारु॑तं॒ शर्धो॒ अदि॑तिं हवामहे। रथं॒ न दु॒र्गाद्व॑सवः सुदानवो॒ विश्व॑स्मान्नो॒ अंह॑सो॒ निष्पि॑पर्तन ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indram mitraṁ varuṇam agnim ūtaye mārutaṁ śardho aditiṁ havāmahe | rathaṁ na durgād vasavaḥ sudānavo viśvasmān no aṁhaso niṣ pipartana ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्र॑म्। मि॒त्रम्। वरु॑णम्। अ॒ग्निम्। ऊ॒तये॑। मारु॑तम्। शर्धः॑। अदि॑तिम्। ह॒वा॒म॒हे॒। रथ॑म्। न। दुः॒ऽगात्। व॒स॒वः॒। सु॒ऽदा॒नवः॒। विश्व॑स्मात्। नः॒। अंह॑सः। निः। पि॒प॒र्त॒न॒ ॥ १.१०६.१

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:106» मन्त्र:1 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:24» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:16» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब एकसौ छः वें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में संसार में ठहरनेवाले विद्वानों के गुण और कामों का वर्णन किया है ।

पदार्थान्वयभाषाः - (सुदानवः) जिनके उत्तम-उत्तम दान आदि काम वा (वसवः) जो विद्यादि शुभगुणों में वस रहे हों वे हे विद्वानो ! तुम लोग (रथम्) विमान आदि यान को (न) जैसे (दुर्गात्) भूमि, जल वा अन्तरिक्ष के कठिन मार्ग से बचा लाते हो वैसे (नः) हम लोगों को (विश्वस्मात्) समस्त (अंहसः) पाप के आचरण से (निष्पिपर्तन) बचाओ, हम लोग (ऊतये) रक्षा आदि प्रयोजन के लिये (इन्द्रम्) बिजुली वा परम ऐश्वर्य्यवाले सभाध्यक्ष (मित्रम्) सबके प्राणरूपी पवन वा सर्वमित्र (वरुणम्) काम करानेवाले उदान वायु वा श्रेष्ठगुणयुक्त विद्वान् (अग्निम्) सूर्य्य आदि रूप अग्नि वा ज्ञानवान् जन (अदितिम्) माता, पिता, पुत्र उत्पन्न हुए समस्त जगत् के कारण वा जगत् की उत्पत्ति (मारुतम्) पवनों वा मनुष्यों के समूह और (शर्द्धः) बलको (हवामहे) अपने कार्य की सिद्धि के लिये स्वीकार करते हैं ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे मनुष्य अच्छी प्रकार सिद्ध किये हुए विमान आदि यान से अति कठिन मार्गों में भी सुख से जाना-आना करके कामों को सिद्धकर समस्त दरिद्रता आदि दुःख से छूटते हैं, वैसे ही ईश्वर की सृष्टि के पृथिवी आदि पदार्थों वा विद्वानों को जान उपकार में लाकर उनका अच्छे प्रकार सेवनकर बहुत सुख को प्राप्त हो सकते हैं ॥ १ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विश्वस्थानां देवानां गुणकर्माण्युपदिश्यन्ते ।

अन्वय:

हे सुदानवो वसवो विद्वांसो यूयं रथं न दुर्गान्नोऽस्मान् विश्वस्मादंहसो निष्पिपर्तन वयमूतय इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमदितिं मारुतं शर्द्धश्च हवामहे ॥ १ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रम्) विद्युतं परमैश्वर्यवन्तं सभाध्यक्षं वा (मित्रम्) सर्वप्राणं सर्वसुहृदं वा (वरुणम्) क्रियाहेतुमुदानं वरगुणयुक्तं विद्वांसं वा (अग्निम्) सूर्यादिरूपं ज्ञानवन्तं वा (ऊतये) रक्षणाद्यर्थाय (मारुतम्) मरुतां वायूनां मनुष्याणामिदं वा (शर्द्धः) बलम् (अदितिम्) मातरं पितरं पुत्रं जातं सकलं जगत् तत्कारणं जनित्वं वा (हवामहे) कार्यसिद्ध्यर्थं गृह्णीमः स्वीकुर्मः (रथम्) विमानादिकं यानम् (न) इव (दुर्गात्) कठिनाद्भूजलान्तरिक्षस्थमार्गात् (वसवः) विद्यादिशुभगुणेषु ये वसन्ति तत्सम्बुद्धौ (सुदानवः) शोभना दानवो दानानि येषां तत्सम्बुद्धौ (विश्वस्मात्) अखिलात् (नः) अस्मान् (अंहसः) पापाचरणात् तत्फलाद्दुःखाद्वा (निः) नितराम् (पिपर्तन) पालयन्तु ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा मनुष्याः सम्यङ्निष्पादितेन विमानादियानेनातिकठिनेषु मार्गेष्वपि सुखेन गमनागमने कृत्वा कार्याणि संसाध्य सर्वस्माद्दारिद्र्यादिदुःखान्मुक्त्वा जीवन्ति तथैवेश्वरसृष्टिस्थान् पृथिव्यादिपदार्थान् विदुषो वा विदित्वोपकृत्य संसेव्यातुलं सुखं प्राप्तुं शक्नुवन्ति ॥ १ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात संपूर्ण विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन आहे. त्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥

भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशी माणसे चांगल्या प्रकारे सिद्ध केलेले विमान इत्यादी यानाने अति कठिण मार्गातही सुखाने जाणे-येणे करतात व काम सिद्ध करतात आणि संपूर्ण दारिद्र्य इत्यादी दुःखांपासून दूर होतात तसेच ईश्वरच्या सृष्टीतील पृथ्वी इत्यादी पदार्थांना किंवा विद्वानांना जाणून त्यांचा उपयोग करून घेऊन त्यांचे चांगल्या प्रकारे ग्रहण करून पुष्कळ सुख प्राप्त करता येऊ शकते. ॥ १ ॥